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बळि॒त्था तद्वपु॑षे धायि दर्श॒तं दे॒वस्य॒ भर्ग॒: सह॑सो॒ यतो॒ जनि॑। यदी॒मुप॒ ह्वर॑ते॒ साध॑ते म॒तिर्ऋ॒तस्य॒ धेना॑ अनयन्त स॒स्रुत॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

baḻ itthā tad vapuṣe dhāyi darśataṁ devasya bhargaḥ sahaso yato jani | yad īm upa hvarate sādhate matir ṛtasya dhenā anayanta sasrutaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बट्। इ॒त्था। तत्। वपु॑षे। धा॒यि॒। द॒र्श॒तम्। दे॒वस्य॑। भर्गः॑। सह॑सः। यतः॑। जनि॑। यत्। ई॒म्। उप॑। ह्वर॑ते। साध॑ते। म॒तिः। ऋ॒तस्य॑। धेनाः॑। अ॒न॒य॒न्त॒। स॒ऽस्रुतः॑ ॥ १.१४१.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:141» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब एकसौ इकतालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर विद्वानों के गुणों का उपदेश करते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जिस (दर्शतम्) देखने योग्य (देवस्य) विद्वान् के (भर्गः) शुद्ध तेज के प्रति मेरी (मतिः) बुद्धि (उपह्वरते) जाती कार्यसिद्धि करती और (सस्रुतः) जो समान सत्यमार्ग को प्राप्त होतीं वे (ऋतस्य) सत्य व्यवहार की (धेनाः) वाणियों को (ईम्) सब ओर से (अनयन्त) सत्यता को पहुँचातीं तथा (यतः) जिस कारण (तत्) वह तेज (सहसः) विद्याबल से (जनि) उत्पन्न होता उस कारण (बडित्था) वह सत्य तेज अर्थात् विद्वानों के गुणों का प्रकाश इस प्रकार अर्थात् उक्त रीति से (वपुषे) अपने सुरूप के लिये तुम लोगों से (धायि) धारण किया जाय ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस उत्तम बुद्धि और सत्य आचरण से विद्यावानों का देखने योग्य स्वरूप धारण किया जाता और काम सिद्ध किया जाता, उस वाणी और उस सत्य आचार को तुम नित्य स्वीकार करो ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्गुणानुपदिशति ।

अन्वय:

हे मनुष्या यद् दर्शतं देवस्य भर्गः प्रति मम मतिरुपह्वरते साधते च सस्रुत ऋतस्य धेना ईमनयन्त यतस्तत् सहसो जनि ततस्तद् बडित्था वपुषे युष्माभिर्धायि ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (बट्) सत्यम् (इत्था) अनेन प्रकारेण विदुषः (तत्) (वपुषे) सुरूपाय (धायि) ध्रियेत (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् (देवस्य) विदुषः (भर्गः) शुद्धं तेजः (सहसः) विद्याबलवतः (यतः) (जनि) उत्पद्यते। अत्राऽडभावः। (यत्) (ईम्) सर्वतः (उप) (ह्वरते) (साधते) (मतिः) प्रज्ञा (ऋतस्य) सत्यस्य (धेनाः) वाण्यः (अनयन्त) नयन्ति (सस्रुतः) याः समानं सत्यं मार्गं स्रुवन्ति गच्छन्ति ताः ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यया प्रज्ञया वाचा सत्याचारेण च विद्यावतां द्रष्टव्यं स्वरूपं ध्रियते कामश्च साध्यते तां वाचं तत्सत्यं च यूयं नित्यं स्वीकुरुत ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे.

भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ज्या उत्तम बुद्धी, वाणी व सत्य आचरणाने विद्वानांचे स्वरूप दिसून येते व कार्य सिद्ध केले जाते त्या वाणी व सत्य आचरणाचा तुम्ही नित्य स्वीकार करा. ॥ १ ॥